Saturday 28 April 2018

कैराना लोकसभा उपचुनाव- मृगांका ही संभालेंगी हुकुम सिंह की विरासत, 10 प्रमुख चुनौतियां

नई दिल्लीः कैराना लोकसभा चुनाव के लिए तारीख का ऐलान हो चुका है। 28 मई को मतदान होगा और 31 को नतीजा आएगा। वेस्ट यूपी के शामली और सहारनपुर की पांच विधानसभाओं को मिलाकर बनने वाली यह लोकसभा सीट भाजपा के वरिष्ठ गुर्जर नेता बाबू हुकुम सिंह का फरवरी में निधन में हो जाने के कारण खाली हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले यह यूपी में भाजपा के लिए नेट प्रैक्टिस का मौका है। फूलपुर व गोरखपुर की लोकसभा सीटों को समाजवादी पार्टी से हार जाने के बाद से ही भाजपा और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ पर भारी दबाव है कैराना में अपना दम दिखाने का। हालांकि अभी किसी भी पार्टी ने अपना प्रत्याशी घोषित नहीं किया है लेकिन यह तय माना जा रहा है कि भाजपा यहां से हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को ही उतारेगी। और यह भी तय है कि अगर मृगांका को टिकट नहीं मिला तो भाजपा के लिए यहां इज्जत बचाना संभव नहीं होगा। आइये जानते हैं भाजपा के सामने इस सीट को कड़ी चुनौती बनाने वाले 10 खास समीकरण–


1. जातीय आंकड़ा- इस सीट पर जातीय समीकरण बहुत ही कठिन हैं। ये कतई भी भाजपा के पक्ष में नहीं जाते। इस सीट पर हिंदु गुर्जर, मुस्लिम गुर्जर, दलित व ओबीसी मतों को बड़ा पेचिदा सा आंकड़ा है। यहां 5 लाख के करीब मुस्लिम वोटर हैं और तीन लाख के करीब दलित वोटर। आप समझ सकते हैं कि भाजपा के लिए कितना मुश्कि है। यही वजह है कि कैराना लोकसभा सीट के इतिहास में भाजपा केवल दो बार ही यह सीट जीत पाई है। एक बार 1998 (वीरेंद्र वर्मा) और दूसरी बार 2014 (हुकुम सिंह) में।
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2. विपक्ष की एकता- यह तो तय है कि यहां भी विपक्षी एकता का बड़ा अहम रोल रहेगा परिणाम में। अगर यहां भाजपा की सीधी टक्कर किसी एक दमदार प्रत्याशी से होती है तो उसे जीतने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना होगा। अगर मुकाबला तिकोना हुआ तो भाजपा के चांस बन सकते हैं। सपा-बसपा के तो एक साथ जाने के पूरे चांस हैं लेकिन कांग्रेस व रालोद का भी उन्हें साथ मिलेगा या नहीं यह बड़ा सवाल है। कांग्रेस ने सपा-बसपा का साथ फूलपुर व गोरखपुर में भी नहीं दिया था।

3. मुस्लिम वोटर निर्णायक- कैराना लोकसभा सीट में शामली जिले की थानाभवन, कैराना व शामली और सहारनपुर जिले की नकुड़ व गंगोह विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें से शामली को छोड़कर सभी पर मुस्लिम वोटर बड़ी संख्या में हैं। यहां से 6 बार मुस्लिम सांसद चुने जा चुके हैं। हुकुम सिंह से पहले बसपा से तबस्सुम बेगम सांसद थीं। वे अपने पति मुनव्वर हसन (सपा सांसद) की मौत के बाद सहानुभूति लहर में सांसद बनी थीं 2009 में। गंगोह व नकुड़ सीटों पर भी मुस्लिम वोटरों का बोलबाला है।
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4. दलित वोटरों के तेवर - 2014 के चुनाव के समय कैराना सीट पर दलित वोटरों ने खुलकर भाजपा के लिए मतदान किया था। मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बने माहौल में दलित वोटरों ने खुद सवर्ण-ओबीसी वोटरों के साथ मिलकर सपा व बसपा के खिलाफ मतदान किया था। इसलिए सपा के प्रत्याशी नाहिद हसन (अब कैराना विधायक) क 329081 वोट मिले थे और बसपा प्रत्याशी कंवर हसन (नाहिद के चाचा) को 160414 ही वोट मिले थे। दोनों मिलाकर भी हुकुम सिंह (565909) के बराबर नहीं पहुंच पाए थे। साफ था मतों का ध्रुवीकरण भाजपा के समर्थन में था। दलित वोटरों का मूड 2 अप्रैल को हुए भारत बंद के मामले से बिगड़ा हुआ है। पुलिस ने जिस तरह से दलित युवकों को पकड़ पकड़कर अंदर किया या पिटाई की उसके बाद से रविदासी समाज में भारी आक्रोश है भाजपा के खिलाफ।

5. जाट मतदाता अनिश्चित- इस लोकसभा सीट पर लगभग सवा लाख जाट वोटर भी हैं। ये ज्यादातर शामली, कैराना व थानाभवन विधानसभा क्षेत्रों में हैं। वैसे जाट मतदाता अजित सिंह के साथ जुड़े रहे हैं लेकिन मुजफ्फरनगर दंगे के समय से जाट वोटर भी अजित सिंह से छिटक गए और इन्होंने भारी संख्या में भाजपा को वोट किया था। यही वजह थी कि रालोद के कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी करतार सिंह भड़ाना को 42706 वोट ही मिल पाए थे। यदि रालोद भी विपक्ष के महागठबंधन का हिस्सा बनता है तो जाट वोटर भाजपा से अलग हो सकते हैं।

6. अन्य जातियों का रुझान- कैराना लोकसभा सीट पर 1.25 लाख गुर्जर, 1.2 लाख कश्यप, 1.10 लाख सैनी. 50 हजार ब्राह्मण, 55 हजार ठाकुर, 55 हजार वैश्य मतदाता भी हैं। इसके अलावा लगभग 2 लाख वोटर अन्य जातियों के हैं। ये सब बिरादरियां अगर भाजपा के साथ जाती हैं तो उसे फायदा होगा। लेकिन यदि मुकाबले में केवल एक ही मुस्लिम प्रत्याशी हो तो भाजपा के लिए यह सीट टेढ़ी खीर बन जाती है।

7. सहारनपुर का मसूद फैक्टर- सहारनपुर के बाहुबली नेता इमरान मसूद भी इस सीट को लेकर बहुत बड़ा फैक्टर न रहे हैं। कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष इमरान मसूद सहारनपुर की राजनीति में बड़ा नाम हैं। 2014 के चुनाव से पहले मोदी के बारे में दिया गया उनका बयान सोशल मीडिया पर सुर्खियों में आया था और वे विवादों में हमेशा ही घिरे रहते हैं। इसके बावजूद कांग्रेस ने वेस्ट की राजनीति में उन्हें बड़ा मुस्लिम नाम मानते हुए प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया था। इमरान नकुड़ व गंगोह विस सीटों पर मुस्लिम वोटर का मूड सेट कर सकते हैं। बताया जाता है कि वे पार्टी हाईकमान को अपने इरादे बता चुके हैं और उनकी राय में कांग्रेस को सपा व बसपा प्रत्याशी को समर्थन नहीं देना चाहिए। उन्होंने राहुल गांधी के सामने राय रखी है कि अगर वे चौधरी अजित सिंह या उनके बेटे जयंत चौधरी को समर्थन देकर लड़ाएं तो यह सीट जीती जा सकती है। मुस्लिम व जाट मतों का एक साथ आना हमेशा से राष्ट्रीय लोकदल के फायदे में रहा है।

8. विपक्ष का प्रत्याशी कौन- इस सीट पर यह बड़ा सवाल है। भाजपा के खिलाफ सपा व बसपा एक तो हो सकते हैं लेकिन यहां प्रत्याशियों का घोर अभाव है। कोई दमदार नाम नहीं नजर आता। सपा पूर्व मंत्री वीरेंद्र सिंह गुर्जर को उतारकर मुस्लिम-गुर्जर मतों को जुटा सकती है लेकिन बाकी जातियों के भी वोट उन्हें मिलेंगे या नहीं यह नहीं कहा जा सकता। कैराना से हमेशा ही हुकुम सिंह को टक्कर देने वाला हसन परिवार भी चुनावी अखाड़े में सदैव उतरता रहता है लेकिन वहां से भी कोई मजबूत नाम नहीं नजर आ रहा है। नाहिद हसन विधायक बन चुके हैं। उनकी मां व पूर्व सांसद तबस्सुम हसन ने विरासत बेटे को सौंप दी है। पहले भी चुनाव लड़ चुके नाहिद के चाचा कंवर व अरशद हसन का राजनीतिक वजूद कुछ नहीं है। इसके अलावा थानाभवन से चुनाव लड़ चुके डॉ. सुधीर पंवार का नाम भी सुनने में आ रहा है। इसके अलावा कुछ माह पहले सपा छोड़कर रालोद में गए अमीर आलम खां के नाम की भी चर्चा है। आलम 1999 में रालोद के टिकट पर यहां से सांसद भी रह चुके हैं। उनका गांव गढ़ीपुख्ता भी इसी लोकसभा सीट का हिस्सा है। बहरहाल आलम चूंकि रालोद में हैं उनकी स्थिति साफ नहीं है। अगर अजित सिंह किसी भी तरह सपा व बसपा से मिलकर आलम या उनके बेटे नवाजिश आलम (बुढ़ाना के पूर्व सपा विधायक) के नाम पर सहमति बना लें तो सीट निकाली जा सकती है। कुल मिलाकर अगर भाजपा यहां फिर से जीतती है तो इसमें सबसे बड़ा रोल विपक्ष के प्रत्याशी को चयन का होगा।

9. भाजपा के चांस- भाजपा लगातार दूसरी बार यह सीट जीतने की कोशिश करेगी और उसके पक्ष में सबसे बड़ी बात यही है कि उनके पास बाबू हुकुम सिंह के निधन की सहानुभूति लहर होगी। कैराना में पहले भी तबस्सुम बेगम (मुनव्वर हसन की बेवा) को सहानुभूति लहर में एक महिला प्रत्याशी को जीत मिल चुकी है। वैसे सुनने में आया है कि कैराना से 2004 में सांसद रह चुकी अनुराधा चौधरी के नाम पर भी कुछ भाजपाई दांव लगा रहे हैं लेकिन फिलहाल पार्टी में संदेश यही है कि अगर यह सीट जीती जा सकती है तो केवल हुकुम सिहं की बेटी मृगांका सिंह के नाम पर ही जीती जा सकती है। इस पर मोदी, अमित शाह व राजनाथ सिंह आदि नेता भी सहमत बताए जाते हैं।

10. खामोश मतदाता- ऐसा नहीं है कि यदि बसपा व सपा मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो यह सीट हलुवा होगी। माना कि मुस्लिम व दलित वोटर एक जगह हो जाएंगे तो संयुक्त प्रत्याशी को जीत मिल ही जाएगी। ओबीसी व सवर्ण जातियों के वोट भी मिलकर एक बड़ा समीकरण बन जाते हैं। ये चाहें तो किसी भी चुनाव को रुख मोड़ सकते हैं लेकिन यहां सबसे बड़ा फैक्टर मतदान प्रतिशत का रहेगा। अगर यहां मतदान प्रतिशत 60 प्रतिशत से ऊपर जाता है तो भाजपा का पलड़ा भारी रहेगा। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती मई की तपती दुपहरी में अपने वोटर को मतदान केंद्र तक पहुंचाना होगा। अगर वह यह कर पाने में सफल रहती है तो उसकी जीत तय है। फूलपुर व गोरखपुर में मतदान प्रतिशत कम रहने की वजह से ही भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था।

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