Wednesday 9 March 2016

EPF विवादः पढ़िये जेटली की गलतियां, जिन्होंने मोदी सरकार की छवि को धक्का पहुंचाया

अरुण जेटली ने जल्दबाजी में लिया था ये फैसला, निजी सेक्टर के नौकरीपेशा की बचत पर थी उनकी नजर


नई दिल्ली: मोदी सरकार ने कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफ) पर कर के विवादित फैसले को वापस लेने का ऐलान कर दिया, पर अर्थशास्त्रियों ने वित्त मंत्री जेतली के इस प्रस्ताव का बेहद बेवकूफी भरा व जल्दबाजी में लिया गया फैसला करार दिया। सरकार ने कहा कि वे इस प्रस्ताव की व्यापक समीक्षा करना चाहते हैं लेकिन जानकारों का कहना है कि ये प्रस्ताव ही गलत और अतार्किक था। इससे मोदी सरकार की वित्तीय नीतियों पर भी सवाल उठ रहे हैं।  वित्तीय मामलों के जानकार व 'इजी मनी ट्रायोलोजी' के लेखक विवेक कौल ने जेतली के पैदा किए ईपीएफ विवाद में छह बड़ी विसंगतियों को इंगित करने का प्रयास किया है:-

1. वित्त मंत्री ने बजट भाषण में कहा था कि ईपीएफ कोष में जमा राशि का केवल 40 प्रतिशत ही कर मुक्त होगा और ये फैसला पहली अप्रैल 2016 के बाद किए जाने वाले निवेश पर लागू होगा। सरकार का तर्क था कि अगर बाकी 60 प्रतिशत पैसे को इंश्योरेंस में लगा दिया जाए तो पूरे 100 प्रतिशत निवेश को आप कर मुक्त करा सकते हैं। यहां ये जान लेना भी जरूरी है कि देश में जितनी भी तरह के निवेश के तरीके हैं वे 5 से 7 प्रतिशत तक का रिटर्न देते हैं। इसके अलावा बैंकों में बहुत से ऐसे एकाउंट हैं जो अन्य तरह के निवेशों से बेहतर ब्याज देते हैं। ये भी सही है कि लोग बीमा पॉलिसियों में निवेश ही केवल इसलिए करते हैं क्योंकि वे अपने कर बचा सकें। लोग लंबी अवधि वाले निवेश करके भी ज्यादा ब्याज दर हासिल कर लेते हैं। इसके अलावा सीनियर सिटीजंस के लिए बचत योजनाएं हैं जिनमें बहुत अच्छा रिटर्न मिलता है। इनमें 15 लाख तक का निवेश करने पर आप 9.3 प्रतिशत तक का ब्याज पा सकते हैं। जब लोगों के पास इतने सारे विकल्प मौजूद हैं तो क्यों उन्हें अपने ईपीएफ की 60 प्रतिशत राशि को बीमा पॉलिसियों में इंवेस्ट करने के लिए बाध्य किया जा रहा था?

2. इस प्रस्ताव का सबसे गलत पहलू ये था कि इसमें निजी क्षेत्र के कर्मचारियों पर ज्यादा बोझ लादा जा रहा था। जिन कर्मचारियों का वेतन 15 हजार रुपये से ज्यादा है उन्हें इसके दायरे में लाया जा रहा था। जो सरकारी कर्मचारी जनरल प्रोविडेंट फंड (जीपीएफ) में निवेश कर रहे हैं उन पर ये बोझ नहीं डाला जा रहा था। क्यों केवल निजी क्षेत्र का कर्मचारी ही ईपीएफ के 60 प्रतिशत निवेश पर टैक्स दे? नियोक्ता के आधार पर ये भेदभाव क्यों? अगर कर लगाना है तो सब पर लगे और नहीं तो किसी पर भी नहीं लागू हो। इसे कैसे न्यायसंगत और उचित ठहराया जा सकता है? 


3. वित्त मंत्री का बजट भाषण में इसका ऐलान करने के कुछ दिन बाद सरकार ने इस बारे में अपनी बात को साफ करने के लिए एक बयान भी जारी किया था। इस व्यक्तव्य में कहा गया था कि सरकार का उद्देश्य निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को 'पेंशनयाफ्ता समाज’ की ओर प्रेरित करना था। यानी आप प्रोविडेंट फंड खाते में से सारा पैसा न निकालें, लेकिन केवल निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को ही क्यों इसके लिए प्रेरित किया जाए? दूसरों को क्यों नहीं? इसके अलावा जो लोग 15 हजार रुपये से कम वेतन पा रहे हैं उनका क्या? उनके लिए तो रिटायरमेंट के बाद नियमित आय का साधन जुटा पाना लगभग असंभव सा ही नजर आता है।

4. इसके अलावा क्यों केवल ईपीएफ और अन्य मान्यता प्राप्त भविष्य निधि पर ही मैच्योरिटी के समय कर लगाया जा रहा है? पब्लिक प्रोविडेंट फंड को इससे क्यों मुक्त रखा जा रहा है? स्वरोजगार पेशवरों (सैल्फ इंपलॉयड) को क्यों नहीं इसके दायरे में लाया गया? उन्हें भी तो पेंशनयाफ्ता समाज का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

5. ईपीएफ में जमा किए गए मूल धन पर भी कर लगाने की योजना सरकार बना रही थी। ये कितना उचित है? ऐसा तो कहीं भी नहीं होता। स्टॉक और रियल एस्टेट के धंधे में भी केवल पूंजी लाभ को गिना जाता है मूल राशि को नहीं। इसके अलावा प्रॉपर्टी में किए गए निवेश या म्यूचुअल फंड पर मुद्रास्फीति के प्रभाव को भी गणना में रखा जाता है और कई बार तो इससे लाभ भी नीचे आ जाता है और इससे निवेशक को इनकम टैक्स बचाने में भी फायदा होता है। इस तरह से अमीर आदमी द्वारा किए गए निवेश को तो कर मुक्त करने के विकल्प मौजूद थे लेकिन मध्यम वर्ग के पास नहीं। ये तो बहुत ही गलत था।

6. सरकार के लिए ये समझ लेना जरूरी है कि अलग-अलग लोगों की अलग-अलग जरूरतें हैं। जैसा कि मंगलवार को लोकसभा में वित्त मंत्री जेतली ने भी कहा कि कर्मचारियों के पास कहां निवेश करना है इसकी आजादी होनी चाहिए। सैद्धांतिक रूप से इस तरह की आजादी जरूरी भी है लेकिन कराधान के लिए सरकार का नीतिगत उद्देश्य हासिल करना भी जरूरी है। जेतली ने कहा कि वर्तमान स्वरूप का उद्देश्य राजस्व हासिल करना नहीं था बल्कि लोगों को पेंशन योजना के लिए प्रोत्साहित करना था। उनके इस तर्क को किसी भी हालत में सही नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रिटायर होने के बाद लोग अपनी जमापूंजी को केवल निवेश के लिए ही प्रयोग नहीं करते हैं बल्कि वे इससे अपने बच्चों की शादी भी करते हैं, बच्चों की शिक्षा पर भी कुछ लोगों को खर्च करना होता है। इसके अलावा स्वास्थ्य लाभ या इलाज कराने के लिए भी कुछ लोगों को खर्च करना होता है फिर इसके लिए वह टैक्स क्यों दे? इससे केवल इतना ही साबित हुआ है कि मोदी सरकार ने ये कदम जल्दबाजी में उठाया और इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया।


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